हरेला: उत्तराखंड की लोक परंपरा और औषधीय पौधों के संरक्षण का आयुर्वेदिक उत्सव
डॉ. राजीव कुरेले आयुर्वेद विशेषज्ञ एवं एसोसिएट प्रोफेसर, उत्तराखंड आयुर्वेद विश्वविद्यालय, हररावाला, देहरादून
उत्तराखंड के जनमानस में प्रकृति, पर्व और पारंपरिक चिकित्सा की गहरी छवि रची-बसी है। यहां का प्रत्येक पर्व केवल उत्सव नहीं, बल्कि प्रकृति और मानव स्वास्थ्य के बीच सेतु का कार्य करता है। हरेला पर्व, जो विशेष रूप से कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्रों में बड़े हर्षोल्लास से मनाया जाता है, उसका मूल स्वर आयुर्वेद के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। सावन संक्रांति के दिन मनाया जाने वाला यह पर्व वर्षा ऋतु के स्वागत, धरती की उर्वरता, वनस्पति के संरक्षण और रोगों के निवारण की दिशा में समाज को प्रेरित करता है। यह समय औषधीय वृक्षारोपण के लिए अत्यंत उपयुक्त होता है, और आयुर्वेद की दृष्टि से यह प्रकृति से ‘चिकित्सा ऊर्जा’ प्राप्त करने का सुनहरा अवसर होता है।
हरेला का ऐतिहासिक व सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य
‘हरेला’ शब्द का अर्थ है – हरियाली से युक्त समय। यह पर्व मुख्यतः सावन माह की संक्रांति को मनाया जाता है, जो कृषिकर्म की शुरुआत, वर्षा ऋतु के आगमन और पृथ्वी की उर्वरता के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। पारंपरिक रूप से लोग अपने आंगन, खेत, मंदिरों और सार्वजनिक स्थलों पर पौधरोपण करते हैं और गेहूं, जौ, तिल, मक्का, सरसों आदि के बीजों को एक पात्र में बोते हैं। दस दिन में जब बीज अंकुरित हो जाते हैं तो उन्हें ‘हरेला’ कहा जाता है, जिसे सिर पर रखकर आशीर्वाद के रूप में ग्रहण किया जाता है।
उत्तराखंड में इस पर्व का संबंध केवल कृषि से ही नहीं, बल्कि पारिवारिक स्वास्थ्य, सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक शिक्षा से भी है। पुराने समय में दादी-नानी द्वारा बच्चों को यह सिखाया जाता था कि कौन-से पेड़ औषधीय गुणों से युक्त होते हैं, कैसे तुलसी, गिलोय, नीम आदि पौधे रोगों से रक्षा करते हैं।
आयुर्वेद और वर्षा ऋतु: शरीर का स्वाभाविक उपचार
आयुर्वेद में वर्षा ऋतु को “वातवर्धक काल” कहा गया है। इस ऋतु में अग्नि (पाचन शक्ति) मंद पड़ जाती है, जिससे शरीर में अम्लता, वात दोष, पाचन विकार, त्वचा संबंधी समस्याएं और ज्वर जैसे रोग उत्पन्न होते हैं। ऐसे में औषधीय पौधों का सेवन व उपयोग शरीर को प्राकृतिक संतुलन में लाने का श्रेष्ठ माध्यम होता है।
‘हरेला’ के समय जब वातावरण में नमी, भूमि में उर्वरता और मौसम में शीतलता होती है, तब लगाए गए पौधे अत्यंत अच्छी तरह विकसित होते हैं। आयुर्वेदिक दृष्टिकोण से यह समय विशेष औषधीय पौधों के रोपण, पत्तियों व मूलों के संचयन और औषधीय प्रयोगों की शुरुआत का भी संकेत देता है।
औषधीय पौधों का सही समय पर रोपण: हरेला की वैज्ञानिक प्रासंगिकता
हरेला पर्व केवल प्रतीकात्मक पौधरोपण तक सीमित न होकर, एक सुविचारित, ऋतुचक्रानुसार औषधीय खेती की प्रणाली का अंग है। नीचे कुछ प्रमुख औषधीय पौधे दिए जा रहे हैं जिन्हें इस समय रोपने से अधिकतम औषधीय गुण प्राप्त होते हैं:
1. तुलसी (Ocimum sanctum)
प्रतिदिन प्रातः तुलसी पत्र का सेवन करने से श्वसन तंत्र मजबूत होता है।
वायरस जनित रोगों से शरीर की रक्षा करता है।
मानसिक तनाव, चिंता, सिरदर्द व सर्दी में लाभकारी।
2. गिलोय (Tinospora cordifolia)
आयुर्वेद में इसे ‘अमृता’ कहा गया है।
डेंगू, मलेरिया, वायरल फीवर, यकृत रोगों में उपयोगी।
इम्युनिटी बूस्टर के रूप में वैज्ञानिक शोधों से सिद्ध।
3. अश्वगंधा (Withania somnifera)
बल्य, मेध्य (मस्तिष्क वर्धक), वृष्य और वातहर औषधि।
मानसिक दुर्बलता, अनिद्रा, तनाव और स्नायु दुर्बलता में प्रभावशाली।
4. आंवला (Emblica officinalis)
विटामिन C का श्रेष्ठ स्रोत।
त्रिफला का मुख्य घटक।
आंखों, त्वचा, बाल, पाचन और इम्युनिटी के लिए उपयोगी।
5. नीम (Azadirachta indica)
रक्त शुद्धि, त्वचा विकार, मधुमेह में उपयोगी।
प्राकृतिक कीटनाशक और वातावरण शुद्धिकर्ता।
6. हरड़, बेहड़ा और त्रिफला के अन्य पौधे
कब्ज, पाचन विकार, आंखों की रोशनी के लिए लाभकारी।
शरीर को डिटॉक्स करने की शक्ति।
7. एलोवेरा (Aloe barbadensis)
त्वचा, यकृत और पाचन में लाभकारी।
महिलाओं के हार्मोनल संतुलन में उपयोगी।
8. शतावरी (Asparagus racemosus)
स्त्रियों के स्वास्थ्य के लिए उत्तम।
दुग्धवर्धक, पौष्टिक व बल्य।
परिवार, विद्यालय और समाज में हरेला की भूमिका
हरेला पर्व का उद्देश्य केवल व्यक्तिगत स्वास्थ्य नहीं, बल्कि सामुदायिक स्वास्थ्य और सामाजिक चेतना है। यदि हर घर, हर विद्यालय और हर पंचायत अपने स्तर पर औषधीय पौधों को रोपने और उनके संरक्षण का कार्य करे, तो उत्तराखंड को एक आयुर्वेदिक राज्य बनने में समय नहीं लगेगा।
विद्यालयों में हरेला के अवसर पर बच्चों को औषधीय पौधों की पहचान, गुणधर्म, उपयोग विधि और रोपण के व्यावहारिक प्रशिक्षण दिए जा सकते हैं। इससे नई पीढ़ी का प्रकृति और आयुर्वेद से संबंध मजबूत होगा।
पर्यावरण संरक्षण और औषधीय वृक्षारोपण: एकात्म दृष्टिकोण
आयुर्वेद केवल चिकित्सा पद्धति नहीं, बल्कि जीवनशैली है। हरेला पर्व इस जीवनशैली को सामाजिक रूप से सुदृढ़ करने का कार्य करता है। औषधीय वृक्षारोपण से –
जल संरक्षण में सहयोग होता है,वनों की जैव विविधता बढ़ती है,वायुमंडल शुद्ध होता है,
जीवन में ‘हरियाली’ और ‘आरोग्यता’ का समावेश होता है।
उत्तराखंड को ‘औषधीय प्रदेश’ बनाने की दिशा में हरेला की भूमिका
उत्तराखंड सरकार, आयुष विभाग और आयुर्वेद विश्वविद्यालय मिलकर यदि हरेला पर्व को आयुर्वेदिक जागरूकता और पौधरोपण अभियान का आधार बनाएं, तो यह पर्व एक जनांदोलन का रूप ले सकता है।
हर ब्लॉक में औषधीय पौधों की नर्सरी,हर ग्राम पंचायत में ‘ग्राम औषधि उद्यान’,विद्यालयों में ‘औषधीय वनस्पति पाठ्यक्रम’,युवाओं के लिए ‘वनस्पति संरक्षण और उत्पाद प्रशिक्षण’ – ऐसे कदम हरेला पर्व को आयुर्वेदिक आत्मनिर्भरता से जोड़ सकते हैं।
: हर घर बने ‘हरित औषधालय’
हरेला केवल सांस्कृतिक विरासत नहीं, बल्कि स्वास्थ्य, पर्यावरण और अर्थव्यवस्था की समेकित उन्नति का अवसर है। यदि प्रत्येक नागरिक इस पर्व पर एक भी औषधीय पौधा रोपे और उसका संरक्षण करे, तो उत्तराखंड न केवल ‘देवभूमि’ बल्कि ‘औषधभूमि’ भी बन सकता है।
विशेष अनुभाग: महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग – आयुर्वेदिक दृष्टिकोण से हरेला पर्व की भूमिका
महिलाएं: स्वास्थ्य और पोषण के लिए औषधीय पौधों की भूमिका
हरेला पर्व के दौरान लगाए जाने वाले कई औषधीय पौधे महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। महिलाओं के जीवन में किशोरावस्था, प्रजनन काल और रजोनिवृत्ति (Menopause) जैसे कई जैविक परिवर्तन आते हैं, जिनमें आयुर्वेद की भूमिका अमूल्य होती है।
महत्वपूर्ण पौधे और उपयोग:
अशोक (Saraca asoca): मासिक धर्म की अनियमितता, अधिक रक्तस्राव, और गर्भाशय संबंधी समस्याओं के लिए श्रेष्ठ औषधि मानी जाती है। इसकी छाल से तैयार ‘अशोकारिष्ट’ महिलाओं के लिए लाभकारी है।
लोध्र (Symplocos racemosa): त्वचा संबंधी समस्याओं, रजोनिवृत्ति के लक्षणों और मूत्र समस्याओं में उपयोगी।
शतावरी (Asparagus racemosus): महिलाओं की शक्ति, स्तनपान में वृद्धि और हार्मोन संतुलन में सहायक। इसे “महिलाओं की सबसे प्रिय औषधि” कहा जाता है।
एलोवेरा (घृतकुमारी): सौंदर्य, त्वचा की सफाई, कब्ज, और गर्भाशय की सेहत में लाभकारी।हर घर की महिलाओं को हरेला के दिन इन पौधों को रोपित कर उनके गुणों को जानना चाहिए ताकि वे उन्हें घरेलू उपयोग में ला सकें।
बच्चे: रोग प्रतिरोधक क्षमता और विकास के लिए औषधीय पौधे
बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता (इम्युनिटी) को प्रारंभिक अवस्था से ही मजबूत करना आवश्यक होता है। हरेला पर्व बच्चों को प्रकृति से जोड़ने का एक सुनहरा अवसर भी है।
महत्वपूर्ण वृक्ष पौधा रोपण के लिए-नीम,आम,गिलोय,जामुन,पीपल,बरगद,अर्जुन,हरड़,बहेड़ा,आंवला
महत्वपूर्ण पौधे और उपयोग:
गिलोय (Tinospora cordifolia): बुखार, सर्दी-जुकाम, और प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में अत्यंत प्रभावी। बच्चों को गिलोय रस डॉक्टर की सलाह से देना लाभकारी होता है।
तुलसी (Ocimum sanctum): खांसी, सर्दी और फेफड़ों की मजबूती के लिए सर्वोत्तम। रोज सुबह 2-3 पत्ते चबाना बच्चों के लिए फायदेमंद होता है।
मुलेठी (Licorice): गले की खराश और खांसी में उपयोगी। चूर्ण या क्वाथ के रूप में दी जा सकती है।
अमरूद का पौधा: इसकी पत्तियों से बनाकर दिया गया क्वाथ बच्चों के पाचन के लिए लाभकारी है।हरेला पर्व के दिन बच्चों को इन पौधों की रोपाई में शामिल करना उन्हें प्रकृति और स्वास्थ दोनों के प्रति जागरूक करता है।
बुजुर्ग: जॉइंट पेन, डायबिटीज और मानसिक स्वास्थ्य के लिए आयुर्वेदिक उपाय
बुजुर्गों को अक्सर गठिया, उच्च रक्तचाप, मधुमेह और नींद से जुड़ी समस्याएं होती हैं। ऐसे में हरेला के दौरान लगाए गए कई औषधीय पौधे उनकी इन समस्याओं में राहत दे सकते हैं।
महत्वपूर्ण पौधे और उपयोग:
हरड़, बहड़ा और आंवला (त्रिफला): पाचन तंत्र, कब्ज, और उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को संतुलित करने वाला शक्तिशाली योग।
नीम (Azadirachta indica): त्वचा, रक्तशुद्धि और डायबिटीज के लिए लाभकारी। रोज सुबह नीम के 4-5 पत्ते चबाना फायदेमंद होता है।
गुग्गुलु (Commiphora mukul): गठिया और जोड़ों के दर्द के लिए विशेष। इसका सेवन चिकित्सकीय परामर्श से करना चाहिए।
ब्राह्मी और शंखपुष्पी: मस्तिष्क के लिए टॉनिक। याददाश्त बढ़ाने और अवसाद-तनाव से राहत देने में सहायक।
हरेला पर्व पर इन पौधों की रोपाई न केवल पर्यावरण सुरक्षा है, बल्कि बुजुर्गों के स्वास्थ्य की भी प्राकृतिक सुरक्षा है।
धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व
हरेला पर्व का संबंध केवल प्रकृति से नहीं, बल्कि हमारी आध्यात्मिक चेतना से भी जुड़ा है। इस दिन भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह की स्मृति में पूजा-अर्चना की जाती है। शिव को प्रकृति का संरक्षक और पार्वती को उर्वरता की देवी माना जाता है। अतः हरेला पर्व, प्रेम, विवाह, जीवन और सृजन का उत्सव है।
वृक्षारोपण: परंपरा नहीं, आवश्यकता
जहां एक ओर हरेला परंपराओं को सहेजने का पर्व है, वहीं यह जलवायु संकट, वनों की कटाई, और प्रदूषण के खिलाफ एक जन-जागरण अभियान भी है। उत्तराखंड सरकार और स्थानीय स्वयंसेवी संगठनों द्वारा इस अवसर पर लाखों पौधे लगाए जाते हैं, विशेषकर स्कूली बच्चों और ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी से।
लेकिन केवल पौधे लगाना पर्याप्त नहीं, उन्हें जीवित रखना और उपयोगी बनाना भी आवश्यक है। इसलिए यदि इन पौधों का चयन आयुर्वेदिक गुणों के आधार पर किया जाए, तो यह न केवल पर्यावरणीय सुरक्षा देगा, बल्कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की दिशा में भी महत्वपूर्ण कदम होगा।
आयुर्वेदिक गुणों से युक्त हरेला वृक्ष: उत्तराखंड के लिए अनमोल विरासत
उत्तराखंड के भौगोलिक स्वरूप – पर्वतीय, अर्द्ध-पर्वतीय एवं तराई क्षेत्रों को ध्यान में रखते हुए यदि आयुर्वेदिक वृक्ष लगाए जाएं, तो यह स्थानीय आबोहवा के अनुकूल, कम पानी में पनपने वाले और लंबे समय तक लाभ देने वाले सिद्ध हो सकते हैं।
बड़े और बहुउपयोगी वृक्ष
1. आंवला (Emblica officinalis):
विटामिन C का भंडार। त्रिफला का एक प्रमुख घटक। रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है। बालों और त्वचा के लिए वरदान।
2. हरड़ (Terminalia chebula):
त्रिफला का दूसरा घटक। पाचन को दुरुस्त करता है। आंखों की रोशनी बढ़ाता है।
3. बहेड़ा (Terminalia bellirica):
तीसरा त्रिफला घटक। श्वसन संबंधी रोगों में लाभकारी। स्मरण शक्ति को बढ़ाता है।
4. नीम (Azadirachta indica):
प्राकृतिक कीटनाशक। मलेरिया व त्वचा रोगों में लाभकारी। हवा को शुद्ध करता है।
5. बिल्व (Aegle marmelos):
कब्ज व मधुमेह में लाभकारी। शिव-पार्वती पूजन में विशेष महत्व।
6. पीपल (Ficus religiosa):
ऑक्सीजन का भंडार। मानसिक तनाव को कम करता है। डायबिटीज व अस्थमा में लाभकारी।
7. अर्जुन (Terminalia arjuna):
हृदय रोगों के लिए श्रेष्ठ। रक्तचाप नियंत्रक।
8. जामुन (Syzygium cumini):
मधुमेह में लाभकारी। पक्षियों को आश्रय देता है।
9. आम (Mangifera indica):
ऊर्जा व स्वाद का स्रोत। मधुमेह में पत्तियां लाभकारी।
10. सप्तपर्ण (Alstonia scholaris):
मलेरिया व त्वचा रोगों में उपयोगी। छायादार व जैव विविधता में सहायक।
मध्यम आकार के उपयोगी वृक्ष व पौधे
1. दारूहल्दी (Berberis aristata):
आंखों की रोशनी और त्वचा रोगों में सहायक।
2. हरसिंगार / पारिजात (Nyctanthes arbor-tristis):
गठिया व बुखार में लाभकारी। रात में खिलने वाले सुगंधित फूल।
3. लोध्र (Symplocos racemosa):
त्वचा व महिलाओं के रोगों में उपयोगी।
4. अशोक (Saraca asoca):
गर्भाशय व मासिक धर्म संबंधी समस्याओं में श्रेष्ठ।
5. कनेर (Nerium indicum):
त्वचा रोगों में प्रयोग, परंतु सावधानी जरूरी (थोड़ा विषैला)।
झाड़ीनुमा व बेल आधारित सहायक पौधे
1. गिलोय (Tinospora cordifolia):
बुखार, डेंगू, मधुमेह में श्रेष्ठ। रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है।
2. अश्वगंधा (Withania somnifera):
तनाव दूर करता है। शरीर की कमजोरी और चिंता में लाभकारी।
3. तुलसी (Ocimum sanctum):
प्राकृतिक एंटीवायरल, श्वसन रोगों में अत्यंत उपयोगी।
4. एलोवेरा (Aloe barbadensis):
त्वचा, पाचन और महिलाओं के हार्मोन संतुलन में लाभकारी।
5. शतावरी (Asparagus racemosus):
प्रजनन स्वास्थ्य और इम्यूनिटी में लाभकारी।
हरेला पर्व: नई पीढ़ी के लिए सबक
आज जब देश जलवायु संकट, पर्यावरणीय असंतुलन और स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहा है, हरेला पर्व हमें आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक दृष्टि से जागरूक करने का अवसर प्रदान करता है।
अगर उत्तराखंड का हर नागरिक हर वर्ष एक पौधा भी आयुर्वेदिक आधार पर लगाए, तो:
- वातावरण शुद्ध होगा
- जल स्रोत सुरक्षित रहेंगे
- बीमारियों में कमी आएगी
- स्थानीय जड़ी-बूटी आधारित उपचार को बढ़ावा मिलेगा
- रोजगार के अवसर भी आयुर्वेद और पारंपरिक चिकित्सा में मिलेंगे
आइए, इस हरेला पर्व पर हम सब मिलकर यह संकल्प लें:
हर घर में हो तुलसी, हर आंगन में हो नीम, हर विद्यालय में हो गिलोय, और हर हृदय में हो प्रकृति के प्रति सम्मान।”
हरेला पर्व केवल एक कृषि और प्रकृति पूजन का पर्व नहीं है, बल्कि यह परिवार के हर सदस्य के स्वास्थ्य की चाबी भी है। जब महिलाएं शतावरी लगाएं, बच्चे तुलसी और गिलोय लगाएं, और बुजुर्ग त्रिफला और ब्राह्मी जैसे पौधों की रोपाई करें – तो यह पर्व संपूर्ण जीवनशैली परिवर्तन का वाहक बन जाता है।
डॉ. राजीव कुरेले, आयुर्वेद विशेषज्ञ के रूप में मैं यह आग्रह करता हूँ कि उत्तराखंड की परंपरा को केवल उत्सव न बनाएं, इसे अपने स्वास्थ्य, संस्कृति और प्रकृति से जुड़ने का अभियान बनाएं।
आप सभी को हरेला पर्व की शुभकामनाएं।
प्रकृति के साथ जुड़ें, आयुर्वेद को अपनाएं, और स्वस्थ जीवन की ओर बढ़ें।
– डॉ. राजीव कुरेले सुप्रसिद्ध आयुर्वेदिक विशेषज्ञ एवं एसोसिएट प्रोफेसर, उत्तराखंड आयुर्वेद विश्वविद्यालय, हररावाला, देहरादून