बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर, हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार एवं भाषा-मर्मज्ञ त्रिलोचन शास्त्री को, नहीं जानते होंगे! मंत्री जी काव्य के मर्म, शब्द-शक्तियों, अलंकार और भाषायी सौन्दर्य से भी अनभिज्ञ होंगे, यह हमारा दावा है! मंत्री जी 16वीं शताब्दी के परिवेश, कालखंड, रीति-रिवाजों, आडंबरों और धार्मिक विरोधाभासों से भी अनजान होंगे! वह संस्कृत, अवधी भाषा और अन्य आंचलिक भाषाओं-बोलियों के आपसी द्वन्द्व से भी अपरिचित हैं, यह भी हमारा दावा है! मंत्री जी इस ऐतिहासिक तथ्य से भी वाकिफ़़ नहीं होंगे कि तुलसीदास का जन्म पूरे 32 दांतों के साथ हुआ था, लिहाजा कई मायनों में उन्हें अद्वितीय, अलौकिक माना गया, तो उनके अपनों ने ‘भूत-प्रेत’ मानकर उनसे दूरी बनाए रखी थी। बाद में उन्हें प्रायश्चित करना पड़ा। यह तो बिल्कुल नहीं जानते होंगे कि भगवान राम की कृपा और छाया तुलसीदास पर थी, जिसने उन्हें महाकवि, संत, कथावाचक बना दिया था। यह प्रभु राम की ही कृपा थी कि हनुमान जी सदैव उनके साथ रहे और मार्गदर्शक की भूमिका अदा करते रहे। बिहारी मंत्री का मानस अवरुद्ध है या नास्तिक है अथवा विकृत है या वह राम-विरोधी हैं, लिहाजा वह इन तथ्यों को ‘किंवदन्ति’ भी करार दे सकते हैं। हमें ‘रामचरित मानस’ सरीखे महाकाव्य, पवित्र ग्रंथ तथा पूजनीय आख्यान पर मंत्री जी का, सकारात्मक या नकारात्मक, किसी भी तरह का प्रमाण-पत्र नहीं चाहिए, क्योंकि किसी भी सूरत में सूर्य को दीपक नहीं दिखाया जा सकता। अंधकार कभी भी सूर्य को पराजित नहीं कर सकता। ‘रामचरित मानस’ भारत ही नहीं, विश्व के असंख्य घरों में आस्था का प्रतीक है। उसका पाठ किया जाता है। वह प्रेम, त्याग, स्नेह, करुणा, मर्यादा, सद्भावना और मानवता का बेमिसाल ग्रंथ है। मंत्री जी ने ‘रामचरित मानस’ को ‘नफरती ग्रंथ’ माना है।
ऐसी ही टिप्पणी उन्होंने कुरान या बाइबिल के संदर्भ में की होती, तो मंत्री जी का जीना हराम हो जाता! उन्हें अज्ञातवास में जाना पड़ता या छिप कर अपनी ज़िंदगी बचानी पड़ती, उनका संवैधानिक पद तो छीन ही लिया जाता! ल्ेकिन भगवान राम, उनके परम भक्त तुलसीदास और सिद्धांत रूप में हिन्दू ‘सहिष्णु’ हैं, लिहाजा मनुस्मृति, रामचरित मानस, वाल्मीकि रामायण अथवा किसी अन्य धार्मिक, पवित्र ग्रंथ को सहजता से गाली दी जा सकती है। चूंकि हम बिहारी मंत्री की साहित्यिक और भाषायी ज्ञान तथा मेधा को जानते हैं, लिहाजा सवाल कर सकते हैं कि उन्होंने ‘रामचरित मानस’ के काव्यांशों की व्याख्या, भावार्थ, निहितार्थ किस आधार पर किया है? मंत्री जी की व्याख्या है कि ‘रामचरित मानस’ पिछड़ों, दलितों, महिलाओं को शिक्षा का अधिकार नहीं देता। ‘मनुस्मृति’ के बाद ही ‘मानस’ ने नफरत फैलाई है। मंत्री जी 16वीं सदी से एकदम 21वीं सदी में पहुंच कर कहते हैं कि नफरत की ज़मीन पर राम मंदिर बनाया जा रहा है। यह सर्वाेच्च अदालत की अवमानना भी है। मंत्री जी ने यह बयान किसी राजनीतिक सभा में नहीं दिए हैं, बल्कि बिहार के नालंदा ओपन विश्वविद्यालय के ‘दीक्षांत समारोह’ के अवसर पर मुख्य अतिथि के तौर पर कहे हैं। यदि बिहार के ‘अ’शिक्षित मंत्री’ ने तुलसीदास के ‘ढोल, सूद्र, पसु, नारी 3’ वाली चौपाई पर त्रिलोचन जी सरीखे मूर्धन्य भाषाविद की व्याख्या पढ़ी होती या मंत्री जी आलंकारिक भाषा सौन्दर्य को जानते अथवा अवधी भाषा की परख होती या 16वीं सदी के कालखंड की जानकारी होती अथवा पर्यायवाची शब्दों की व्यंजना शक्ति की जानकारी होती, तो वह बयान ही न देते और लालू के राजद के प्रवक्ताओं को उनका बचाव ही न करना पड़ता। दरअसल बिहारी मंत्री ‘रामचरित मानस’ के जरिए अपने दल के चुनावी वोट बैंक को संबोधित करना चाहते थे, जो सरासर गलत है। सामाजिक न्याय इसे नहीं कहते कि किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करें। संविधान ने भी ऐसा अधिकार हमें नहीं दिया है। मंत्री के ये बोल वर्ग विशेष की भावनाओं को आहत कर रहे हैं।